
उपभोगवाद पर❗➖ ‼️आत्मवाद का नियंत्रण हो
उपभोगवाद पर❗➖ ‼️आत्मवाद का नियंत्रण हो
जिस क्रम से हमारी तथाकथित "प्रगति" प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रही है, उसे दूर दृष्टि से देखा जाए तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि तात्कालिक लाभ में अंधे होकर, हम भविष्य को घोर अंधकारमय बनाने के लिए आतुर हो रहे हैं। सारा "दोष" उस "मानवीय चिंतन" - उस "जीवन पद्धति" को है, जिसमें प्राकृतिक व्यवस्था की ओर ध्यान दिये बिना "कम से कम श्रम" और "अधिकतम विलासिता" के साधन एकत्र करने की धुन लगी हुई है। व्यक्ति के इस उतावलेपन ने सामूहिक रूप धारण कर लिया है, इससे प्राकृतिक व्यवस्थाओं का विचलित होना स्वाभाविक है। मशीनीकरण, प्राकृतिक संपदाओं का दोहन और उनका अंधाधुंध उपभोग, राष्ट्रों के बीच सर्वशक्तिमान् बनने की महत्त्वाकांक्षाएँ और उसके फलस्वरूप आणविक अस्त्र-शस्त्रों की होड़, सब मिलाकर परिस्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो चली हैं, इससे विचारशीलों का चिंतित होना और तथाकथित प्रगति पर रोक लगाना आवश्यक हो गया है। यह सब एकमात्र इस बात पर आधारित है कि मनुष्य अपना "चिंतन", अपना "लक्ष्य", अपने "दृष्टिकोण" में "मानवतावादी आदर्शों" का समावेश करे, वह जीवन नीति अपनाये, जिसमें भरपूर श्रम में जीवनयापन का प्राकृतिक ढंग उभरकर सामने आ सके।
???? मनुष्य की दुर्भावनाएँ जब तक व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहती हैं, तब तक उसका प्रभाव उतने लोगों तक सीमित रहता है, जितनों से कि उस व्यक्ति का संपर्क रह सके, परंतु जब "राजसत्ता" और "विज्ञान" का भी सहारा मिल जाये तो उन दुर्भावनाओं को विश्वव्यापी होने और सर्वाग्रही संकट उत्पन्न करने में कुछ भी कठिनाई नहीं रहती। स्वार्थों का संघर्ष, संकीर्णता और अनुदारता का दृष्टिकोण, शोषण और वर्चस्व का मोह आज असीम नृशंसता से के रूप में अट्टहास कर रहा है। "राजसत्ता" और "विज्ञान" की सहायता से उसका जो स्वरूप बन गया है, उससे मानवता की आत्मा थर-थर काँपने लगी है। प्रगति के नाम पर मानव प्राणी की चिर-संचित सभ्यता का नामोनिशान मिटाकर रख देने वाली परिस्थितियों की विशाल परिमाण में जो तैयारी हो चुकी है, उसमें चिनगारी लगने की देर है कि यह बेचारा भू-मंडल बात ही बात नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। मानव मन की दुर्भावनाओं की घातकता अत्यंत विशाल है। लगभग ८००० मील व्यास का यह नन्हा सा पृथ्वी ग्रह उसके लिए एक ग्रास के बराबर है।
???? अधिकाधिक "लाभ" कमाने के "लोभ" ने अधिकाधिक उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया है। मानवी रुचि में अधिकाधिक उपभोग की ललक उत्पन्न की जा रही है, ताकि "अनावश्यक" किंतु "आकर्षक" वस्तुओं की खपत बढ़े और उससे निहित स्वार्थों को अधिकाधिक लाभ कमाने का अवसर मिलता चला जाये। इस एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया है कि इस तथाकथित प्रगति और तथाकथित सभ्यता का सृष्टि-संतुलन पर क्या असर पड़ेगा ? इकॉलाजिकल बैलेंस गँवाकर, मनुष्य सुविधा और लोभ प्राप्त करने के स्थान पर ऐसी सर्प-विभीषिका को गले में लपेट लेगा, जो उसके लिए विनाश का संदेश ही सिद्ध होगी। एकांगी "भौतिकवाद", अनियंत्रित "उच्छृंखल दानव" की तरह अपने पालने वाले का ही भक्षण करेगा। यदि विज्ञान रूपी दैत्य से कुछ उपयोगी लाम उठाना हो तो उस पर "आत्मवाद" के "मानवीय सदाचार" का नियंत्रण अनिवार्य रूप से कसना ही पड़ेगा।
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विज्ञान को शैतान बनने से रोकें पृष्ठ-०९
????पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ????